Friday, March 30, 2012

उम्मीद- ए - अभिलाषा

अपने हर लफ़्ज़ों को पन्नो पे उतार नहीं सकता,
हसी के मुखोटे से हर वक़्त अपने गमो को उभार नहीं सकता,
दुनिया का येही उसूल है धूप और छाओं सबके बराबर के रसूल है,
जब जब में दो कदम चला, ज़िन्दगी मुझसे चार कदम आगे निकली, 
ज़िन्दगी मेरी हसी पे हैरान होती रही, और ये कारवां चलता रहा
मुझे यकीन है एक पल रुक कर, बीतें सफ़र में झाँक कर फिर अपने कदम बदाऊंगा 
दरिया में बहना और हवाओ से लड़कर गमो से उभरकर मुस्कुराना सीख जाऊंगा 
और फिर इक दिन शायद अपने दिल की बात को लफ़्ज़ों पे ला पाऊंगा ......

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